*क्या ज्ञानी/संन्यासी को भी प्रारब्ध भोगना ही पड़ता है? * ज्ञान और वैराग्य दोनों में से एक के भी सिद्ध हो जाने पर दूसरा स्वतः सिद्ध हो जाता है।* आत्मज्ञान के तीन उपाय - वेदान्त शास्त्र का अभ्यास, सत्संग और ध्यान। इनमें से पहले से दूसरा और दूसरे से तीसरा श्रेष्ठतर है -"उपाय एकः शास्त्रार्थो द्वितीयो ज्ञसमागमः। ध्यानं तृतीयं निर्वाणे श्रेष्ठस्तत्रोत्तरोत्तरः।।" ***क्या संन्यासी/ज्ञानी को प्रारब्ध भोगना ही पड़ता है?
नारायण। इस सम्बन्ध में दो मत हैं और हमारे विचार से ज्ञानकी भिन्न भूमिकाओं के अनुसार दोनों ठीक हैं।
प्रथम मत यह है कि ज्ञानी के संचित कर्म नष्ट हो जाते हैं, क्रियमाण कर्म फलहीन होते हैं किन्तु प्रारब्धफल भोगकर ही समाप्त करना पड़ता है।
दूसरा मत है कि भोगों का उपस्थित होना प्रारब्ध के हाथ में है, किन्तु उसे भोगना अथवा न भोगना ज्ञानी के हाथ में है।
भगवद्गीता 2/52 की व्याख्या में उडि़या बाबा ने कहा है-
"शास्त्रों में सुना है कि प्रारब्ध तो भोगना ही पड़ता है।अतः वैराग्य होने पर भी जब विना यत्न किये कोई पदार्थ प्राप्त हो जाता है तो उसे प्रारब्धभोग कहकर भोग लेते हैं। परन्तु यह ठीक नहीं। क्योंकि भोग्य पदार्थ का सामने आ जाना तो प्रारब्ध है, परन्तु उसे भोगना तो हमारा प्रारब्ध नहीं है। उसे न भोगना तो हमारे हाथ की बात है। यदि इतना जानने पर भी हम भोगते हैं तो यह अविचार या आसक्ति ही है।बोधवान् को तो प्रारब्ध से भी वैराग्य हो जाता है, वह तो उसे भी नहीं भोगता। इसी से कहा है - 'तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च'। ऐसा अनुभव हो तभी अपने को पूर्ण वैराग्यवान् समझना चाहिये। वास्तव में प्रारब्ध कोई वस्तु नहीं है। अज्ञानियों को समझाने के लिये श्रुति प्रारब्ध बतलाती है। बोध होने पर तो प्रारब्ध भी बोधरूप ही है। बोधवान् तो प्रारब्ध भी नहीं भोगता।"
इस दूसरे मत की पुष्टि योगवासिष्ठ से भी होती है। न भोगने का तात्पर्य है - उपस्थित भोगों से वैराग्य। ज्ञानयोगकी सात भूमिकायें हैं। छठी भूमिका में पहुंचे हुये योगी के लिये योगवासिष्ठ में कहा है -
"कुतोऽप्यचेष्टितेष्वेव सम्प्राप्तेषु विधेर्वशात्।
भोगेष्वरतिमायाति पान्थो मरुमहीष्विव।।
विना यत्न किये ही कहीं से अर्थात् दूसरों के प्रयत्न से दैववशात् प्राप्त हुये भोगों में वह ऐसे विरक्त हो जाता है, जैसे मरुभूमि में बुद्धिमान् पथिक।