ओह रे ताल मिले नदी के जल में, नदी मिले सागर में, सागर मिले कौन से जल में कोई जाने ना, यह गीत आज से पचास वर्ष पूर्व गाय मुकेश जी ने. हमारी पीढ़ी जो नब्बे के दशक में धरती पर अवतरित हुई उसको सौभाग्य से ताल, नदी, तलैया, झील, तालाब पोखरा, समुद्र, देखने और जीने का अवसर मिला. ईश्वर और अपने पूर्वजों को इस उपहार के लिए मैं धन्यवाद देती हूँ. पर हम क्या देकर जायेंगे आने वाली पीढ़ी को यह सोच कर घबरा जाती हूँ. कोरोना, ग्लोबल वार्मिंग, जलती धरती, जंगल विहीन समाज, सोच कर इतना भय लगता है अगर यह आने वाले समय का सच हुआ तो बाप रे... हमारी पीढ़ी न ही बहुत बुजुर्ग हुई है ना ही युवा अवस्था में है. हम सब आधी उम्र इस सुन्दर धरती पर जी चुके हैं अब हमारे पास सूचना और ज्ञान है हमारे वातावरण और समाज और देशकाल का. तो समय कि मांग यह है मित्रों अपने बच्चों और उनके बच्चों को कुछ बेहतर माहौल और समाज और संसार देने का. है ना. आप सब भी यही सोचते हो. पर समय सोचने का नहीं यह समय है प्रयास और संगठीत होकर बेहतर संसार और जीवन के लिए कुछ योजना बद्ध ढ़ग से काम करने का. काम है वृक्ष लगाना, काम है जल के लिए नदियों और तालों का संरक्षण करना, जमीन का संरक्षण, हवा को स्वच्छ रखने के लिए योजना बनाना. और काम में लग जाने का. सोचने में आधा जीवन बीत चुका है. आप ने जो गीत सुना ओह रे ताल मिले नदी के जल में यह कहानी अगर आप भी अपने बच्चों को सुनाना चाहते हो तो उठ जाओ, जागो निंद से, सरकार और प्रशासन केवल योजना बनाती है पर काम तो हमें ही करना है. इस धरा से जो लिया है वो देने का समय है. उठो, चलो, और तब तक नहीं रुकना जबतक यह एक संस्कार न बन जाये लोग यह आदत ना बना ले कि जो पाया है उसे सूद समेत लौटाना भी है. धरती को फिर से रहने योग्य बनाना है. अपनी जड़ो से फिर जुड़ जाना है. अगर हमने यह कदम नहीं उठाया तो क्या कहुँ आप सब जानते हैं. खैर आज की कहानी एक ताल से निकली नदी की जिसके नाम पर काशी का एक नाम वाराणसी है. वाराणसी एक जिला है उत्तर प्रदेश का. जिसकी सीमा वरुणा और अस्सी नदी बनाती थी कभी. अब यह केवल नाम है. इस वरुणा का जन्म फूलपुर गांव में एक झील से होता है. यह नदी वाराणसी में आने के पहले वसुही सहायक मौसमी नदी से मिलती है. वसुही से मिलकर वरुणा विषधर के बिष को हरने वाली बन जाती है. यानि वरुणा के जल में एंटी डोट है आज की भाषा में. है ना. पर क्या फायदा वरुणा पाप हरना,काशी पाप नाशी, कहावत को काशी के जनता ने इतना गंभीरता से लिया कि वरुणा नदी से नाला बन गयी. अतिक्रमण और सीवेज के पानी से नदी जल का स्त्रोत नहीं, बिमारी का घर बन गयी. इस कलयुग में इतना अंधकार है कि लोग बस अपने भोजन, सांस की चिंता में मरे जा रहे. उपयोगिता वाद और संसाधन का दोहन चरम पर है. पंचतत्व जो मानव जीवन का आधार है मानव उसे ही शोषक की भाती चूस रहा. आदि केशव घाट और वरुणा की जन्म कथा यही तक. आगे की कड़ी में और भी सच से पर्दे उठेंगे. यह तो अभी आगाज है.. अंजाम आना बाकी है. अपने मित्र बनारसी सिंह का होसला आफजाई जरूर करें. कहानी सुनाने के लिए. आपके सुझाव और प्रोत्साहन का इंतजार रहेंगा. हर हर महादेव.