"एपिसोड 729.
(*आजका स्मृतिवचन* - सर्वेषामेव दानानां विद्यादानं ततोधिकम्। पुत्रादिस्वजने दद्याद्विप्राय च न कैतवे।। सकामः स्वर्गमाप्नोति निष्कामो मोक्षमाप्नुयात्।। अत्रि, 337-38।।
समस्त दानों में विद्याका दान सर्वश्रेष्ठ है। इसे पुत्रशिष्य इत्यादि स्नेहीजनों को और विप्र को देना चाहिये, कपटी को नहीं देना चाहिये। जो किसी कामना से विद्यादान करता है, उसे स्वर्ग की और जो निष्कामभाव से करता है, उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है।)
अब भगवद्गीता 4.22-24
"ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना।।24।।" की विशेष प्रसिद्धि है।
*विचारबिन्दु*
1. श्लोक 22 में "यदृच्छा" का अर्थ
2. श्लोक 22 में संन्यासी के लिये सिद्धि-असिद्धि का तात्पर्य। संन्यासी को भिक्षा मिलना ही सिद्धि है । जो भिक्षा मिलने और न मिलने में समान भाव रखता है उसीके लिये कहा - समः सिद्धावसिद्धौ च। जो इससे अधिक की अपेक्षा करता है, अथवा सिद्धि का अर्थ कोई चमत्कारी क्षमता समझता है, वह तो संन्यासी कहलाने के योग्य भी नहीं। 2. श्लोक 23 में "यज्ञायाचरतः" का तात्त्पर्य - गृहस्थ के लिये आहुति वाला यज्ञ और संन्यासी के लिये प्राणायाम इत्यादि रूपी यज्ञ जिसको आगे श्लोक 25 से 33 में बताया जायेगा।
3. श्लोक 23 में "समग्रं प्रविलीयते" का अर्थ - स्वर्ग इत्यादि फल भी मोक्ष में विलीन हो जाते हैं। अर्थात् जिस यज्ञ को सकाम भाव से करने पर स्वर्ग इत्यादि की प्राप्ति होती उसी को अनासक्त होकर निष्काम भाव से करने पर मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है।
4. श्लोक 24 प्रथमदृष्ट्या अर्थात् लोकप्रसिद्ध हवन-यज्ञ की दृष्टि से ब्रह्मचारी, गृहस्थ और वानप्रस्थियों के लिये प्रतीत होता है, क्योंकि संन्यासी अग्नि में आहुति नहीं दे सकता। किन्तु इसे आगे के श्लोकों (25 से 33) के साथ समझना है। तदनुसार यज्ञ की विस्तृत परिभाषा की दृष्टि से यह संन्यासी के लिये भी है।
5. "अर्पण" का अर्थ - शाङ्करभाष्य और शाङ्कर परम्परानुसारी व्याख्याओं और तिलककृत व्याख्या की तुलना। वस्तुतः अर्पण में दोनों ही अर्थ एक साथ निहित हैं। तिलक की व्याख्या को शाङ्कर व्याख्या का विस्तार समझना चाहिये, विरोधाभासी नहीं। तिलक ने हठात् छिद्रान्वेषण किया है। उन्होने मधुसूदनी टीका पर दृष्टिपात कर लिया होता तो शाङ्करभाष्य की आलोचना नहीं करते।
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