यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते।।2/15।।नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः। उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोः तत्वदर्शिभिः।।16।।
(हे नरश्रेष्ठ! दुःख और सुख को समान समझने वाले जिस धैर्यवान् पुरुष को यह इन्द्रिय और विषयों का संयोग व्यथित नहीं करता, वह मोक्ष का अधिकारी होता है।।15।। असत् वस्तु का अस्तित्व नहीं है और सत् का कभी अभाव नहीं होता। इस प्रकार इन दोनों का ही भेद तत्वदर्शियों ने देखा है।।16।।)
व्याख्या के विन्दु :-
1. सुख-दुःख, सर्दी-गर्मी इत्यादि द्वन्द्वों को सहन करने तथा इनमें सम रहने का अभ्यास करना चाहिये। इनसे विचलित नहीं होना चाहिये। इसी को तितिक्षा कहते हैं।
2.जो सुख-दुःख को समान समझता है, वही आत्मज्ञान का अधिकारी होता है और उसी की मुक्ति होती है।
3. दुःख की प्राप्ति में विषाद और सुखकी प्राप्ति में हर्ष
होता है। यह दोनों जिसको नहीं होते उसीको "समदुःखसुखं" कहते हैं।
4. जो सुख-दुःख आदि द्वंद्व में सम है, वह इस जीवन में ही मुक्त है, वह जीवित रहते ही संसारको जीत लेता है, वह जीवित रहते ही भवसागर को पार कर लेता है।
5. शीत-उष्ण, दुःख-सुख आदि की प्रतीति तो ज्ञानी को भी होती है, किन्तु इन्हे वह सत्ताशून्य देखता है। ज्ञानीको आत्मज्ञान बना रहता है। अतः वह दुःख-सुख, शीत-उष्ण इत्यादि द्वन्द्वोंसे विचलित नहीं होता।
6. इस प्रकार आत्मज्ञाननिष्ठ और द्वन्द्वसहिष्णु व्यक्ति ही मोक्षप्राप्ति में समर्थ होते हैं।
7. विशेष ध्यातव्य - "समदुःखसुखं" में दुःख को पहले कहे, सुख को बाद में। अपने-अपने व्यावहारिक अनुभव का ही विश्लेषण करें - विना दुःख के सुख नहीं मिलता। दुःख पहले आता है सुख बाद में। जीवन का आरम्भ ही दुःख से होता है और अन्त भी दुःख से होता है -"जनमत मरत दुसह दुःख होई।।"
सुख की प्राप्ति के उपाय करने में दुःख होता है और सुख के जाने पर भी दुःख होता है। अर्थात् सुख भी दुःख ही देकर जाता है। इस प्रकार सुख के साधन जुटाने में दुःख, सुख और उसके साधनों की रक्षा करने में दुःख , और सुखके नष्ट होने पर दुःख। अर्थात् सुख जो है वह दुःख के घेरे में है तथा केवल घेरे में ही नहीं, अपितु सुख के भीतर भी दुःख समाया हुआ है। इसी दुःखसे निवृत्त होना है।
अतः भगवान् ने "समसुख-दुःखं" न कहकर "समदुःख-सुखं" कहा। दोनों के क्रम की ओर संकेत करते हुये दोनों में समान रहने की शिक्षा दिये। सम रहने से ही दुःख से निवृत्ति होगी।
इस प्रकार मोक्ष हेतु विवेक-वैराग्य इत्यादि साधनों की भांति तितिक्षा भी एक अनिवार्य साधन है। और केवल अनिवार्य ही नहीं , अपितु प्राथमिक साधन है। 8. अब 16वें श्लोक में कहते हैं कि सत् वही है जो सर्वदा रहे, जो पहले भी रहा अब भी है और आगे भी रहेगा , वही सत्य है। केवल एक काल में दिखलाई देने वाली वस्तु असत् है, भ्रममात्र है। यह माया है। माया का अर्थ है जो हो नहीं किन्तु दिखलाई दे। संसार केवल दिखलाई दे रहा है, है नहीं। यह प्रत्यत्क्ष अनुमान उपमान शब्द इत्यादि किसी भी प्रमाण से सत्य सिद्ध नहीं होता। यह मृगमरीचिका की भांति भ्रममात्र है।