सुख स्वयं को जानने पाने में है।
जानना ही पाना है। स्वयंको जाननेके लिये किसी साधन की आवश्यकता नहीं, अपितु बनावटी चीजों को हटाने की आवश्यकता होती है, चित्त पर पडे़ हुये संस्कारों को हटाने की आवश्यकता है।
कोई भी सम्पत्ति आप सम्पत्ति के लिये नहीं, अपने आनन्दके लिये एकत्र करते हैं। सम्पत्तिसे आपका प्रेम नहीं है, सम्पत्तिजन्य सुखसे प्रेम है। और वह सुख क्षणभंगुर है।
वैशेषिक दर्शनमें भी चार प्रकारके सुख बताये हैं - विषयभोगजन्य सुख, अभिमानजन्य सुख , मनोरथजन्य सुख और अभ्यासजन्य सुख। इन चारों ही क्षणिक हैं, अन्ततः दुःखदायी हैं। स्थिर है केवल "स्व"- अपना आपा।
स्वयं को जानना ही आत्यंतिक रूपसे सुखी होना है, यही वास्तविक जागरण है , स्वयंको जानना ही विश्वरूप होना है।